Sunday, February 6, 2011

अंजान


कोहोरेमें मची एक नई साजिश
ढूंढ राहा हू तुम्हे...पानेकी एक कोशिश
कभी जिकर कर मेरा ए नादान....
क्या पता कब हो जाएंगे हम तुमसे अंजान

लब्ज ना निकल पाए जुबान से
मुकर गई मुझसे अनकही बाते कह के...
अब वक्त यू थम सा गया....
और आज मेराही साया मुझसे उलझता गया

काटोंसे भरी इन राहो पे चल पडा
कदर होगी उसे..तो लौट आयेगी ए खुदा
हर झालिम लब्ज कहे उस नादान ने..
गूंज रहे हैं हर पल हर कदमपर..

चुभ रहें है काटे...लेकीन मजा आ रहा है
झिंदगी अकेले ऐसेही जीकर मर मिटना...
कोई वजह नही ना कोई चाह...
कुछ पन्ने लिख छोड कर चला जाऊ....
यही है मेरा केहना.....

- शशांक नवलकर ६.२.११

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